Urvashi Cursed Arjuna Mahabharata Story – महाभारत का इतिहास अनेकों वीर योद्धाओं के त्याग और समर्पण की महान गाथाओं से भरा हुआ हैं। पितामह भीष्म, घटोत्कच पुत्र बर्बरीक, अभिमन्यु और कर्ण के अलावा अर्जुन का बलिदान भी कुछ कम नहीं है। जब एक बार इंद्रलोक में पांडव पुत्र अर्जुन को अप्सरा ने क्रोधित हो नपुंसक होने का श्राप दे दिया था। तब अर्जुन ने सहजता से इस श्राप को स्वीकार किया और पांडवों के अज्ञातवास के दौरान यही श्राप वरदान साबित हुआ।
महाभारत प्रसंग: एक बार इन्द्रदेव ने अर्जुन को इन्द्रलोक में आने का न्योता दिया। जब अर्जुन इन्द्रलोक पहुंचा तो इन्द्रदेव ने पांडू पुत्र अर्जुन को अपने पुत्र के सामान प्रेम और सम्मान दिया। रणसंग्राम की सारी विद्या सिखाकर अत्यंत कुशल बना दिया। इसके बाद इन्द्रदेव ने अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए दरबार में स्वर्ग की सभी अप्सराओं को बुलाया। अप्सराओं का नृत्य चल रहा था तभी इन्द्रदेव ने सोचा कि उर्वशी के रूप और यौवन को देखकर अर्जुन मोहित हो जायेगा और उसकी मांग अवश्य करेगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत अर्जुन के बल, यौवन व गुणों को देखकर उर्वशी मोहित हो गयी।
इन्द्रदेव से अनुमति लेकर उर्वशी रात्रि में अर्जुन के कक्ष में पहुँच गयी और अर्जुन की ओर निहारते हुए कहने लगी, “हे अर्जुन! मै आपको चाहती हूँ। आपके अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष को मैं नहीं चाहती। मेरा यौवन आपको पाने के लिए तड़प रहा हैं मेरी अभिलाषा पूर्ण करो नाथ।”
उर्वशी की बात सुनकर अर्जुन ने कहा: “माता! अपने पुत्र से ऐसी आशा करना योग्य नहीं है। मैं आपके पुत्र के सामान हूँ। आप व्यर्थ ही ऐसी बातें कर रही हैं।”
उर्वशी ने अनेक प्रकार से अर्जुन को रिझाने की कोशिश की लेकिन अर्जुन अपने कथन पर अडिग रहे।
अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय संयम का परिचय देते हुआ कहा:
गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनि।
त्वं हि मे मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया।।
अर्थ: “हे वरवर्णिनी ! मैं आपके चरणों में शीश झुकाकर आपकी शरण में आया हूँ। मेरे लिए आप माता के समान पूजनीय हो और मुझे अपने पुत्र के समान जानकर मेरी रक्षा करनी चाहिए।”
अपनी इच्छा पूरी न होने पर उर्वशी ने क्रोध में आकर अर्जुन को एक वर्ष तक नपुंसक होने का श्राप दे दिया।
अर्जुन ने सहजता से अभिशाप को स्वीकार किया। किन्तु अपना निश्चय नहीं बदला।
यही श्राप पांडवों के अज्ञातवास में अर्जुन के लिए वरदान साबित हुआ। राजा विराट के महल में अर्जुन ने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय बृहन्नला बनकर महाराज विराट की कन्या उत्तरा और उनकी सखियों को नृत्य की शिक्षा देने का कार्य किया।
अज्ञातवास में अर्जुन को ‘षण्ढक’ और ‘बृहन्नला’ कहा गया है। ‘षण्ढक’ का अर्थ है- ‘नपुंसक’।