महाराज कृष्णदेव राय और तेनालीरामन की कहानियों में पिछली कहानी आपने पढ़ी तेनालीराम के बाग की सिंचाई और आज हम आपके लिए लाएँ हैं “ तेनालीरामन बना जटाधारी सन्यासी” इस कहानी में तेनाली एक सन्यासी का रूप धरकर अपनी सूझ-बुझ से मंत्री जी की पोल पुरे दरबार में खोल देता है।
एक बार महाराज कृष्णदेव रायको एक विशाल मंदिर बनवाने की सूझी। उन्होंने अपने मंत्री को बुलाकर यह इच्छा व्यक्त की और कहा कि इसके लिए किसी उप्युक्त स्थान का चयन किया जाए।
मंत्री तुरंत ऐसे स्थान की खोज में निकल पड़ा जो वास्तुशास्त्र के अनुसार मंदिर -निर्माण के लिए उपयुक्त हो। पास के एक जंगल में एक पुराने शिवालय के कुछ खंडहर मिले थे। वहां कोई आता जाता नहीं था ,परन्तु वह मंदिर निर्माण की दर्ष्टि से उपयुक्त स्थान था
मंत्री ने सोचा क्यों न निर्माण यही पर कराया जाए। इसके बाद महाराज की अनुमति मिलते ही मंत्री ने उस स्थान की सफाई करवा दी। खंडहरों की खुदाई के समय वहां भगवान शिव की एक आदमकद प्रतिमा मिली। वह सोने की बनी हुई थी। उसे देखकर मंत्री के मन में लालच आ गया। उसने मूर्ति को चुपचाप उठवाकर अपने घर पहुंचवा दिया।
उस स्थान पर खुदाई करने वाले मजदूरों में तेनालीरामन के भी आदमी थे ,अतः यह बात अधिक दिनों तक छिपी न रह सकी। एक दिन उन्होंने तेनालीराम को बता दिया। यह सुनकर तेनालीराम सोच में पड़ गया ,परन्तु चुप ही रहा। उसने इस बात का खुलासा अवसर पड़ने पर ही करने की ठानी।
जब मंदिर -निर्माण के लिए चुने गए उस स्थल का भूमि पूजन हो गया तब महाराज ने वहां भगवान की एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने की योजना बनाई। इस बारे में उन्होंने अपने दरबारियों की राय पूछी ,’’मंदिर में जो प्रतिमा स्थापित की जायगी वह कैसी बनाई जाएं ?
सभी दरबारी अपनी -अपनी राय देने लगे। उस दिन महाराज कुछ भी तय नहीं कर पाय ,अतः मामला दूसरे दिन पर टाल दिया गया।
अगले दिन फिर दरबार लगा। तभी एक सेवक ने आकर बताया की एक जटाधारी सन्यासी महाराज आपसे मिलना चाहता है। महाराज ने अनुमति दे दी।
सन्यासी के आगमन पर महाराज ने सिंघाहासन से उठकर उसका स्वागत किया तथा आसन ग्रहण करने का आग्रह किया। आसन ग्रहण कर सन्यासी बोला ,’’राजन !मै तो मात्र आपको एक संदेश देने के लिए यहाँ आया हूँ। रात को भगवान शिव ने मुझे सपने में दर्शन दिए थे। यह उन्ही का सन्देश है। ”
“संदेश ! भला भगवान शिव ने हमें क्या संदेश भेजा है ?”
“राजन !भगवान शिव ने स्वपन में मुझे बताया है की उन्होंने स्वय अपनी स्वर्ण निर्मित आदमकद प्रतिमा भेज दी है। इस समय वह मंत्रीजी के घर में रखी है। आप उसे वहां से मँगवाकर मंदिर में प्रतिष्ठापित करवा दे।
यह कहकर सन्यासी वहाँ से चला गया।
महाराज ने मंत्री की ओर देखा तो वह सकपका-सा गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था की सोने की प्रतिमा की बात कैसे पता चली ? अब उसकी पोल खुल ही चुकी थी ,अतः उसने स्वीकार कर लिया कि प्रतिमा उसी के घर में है।
तभी महाराज ने राजदरबारियों की तरफ देखा तो पाया की तेनालीराम अपने आसन पर नहीं है, लेकिन जल्दी ही वह दरबार में आ पहुंचा। उसे देखते ही सब हँस पड़े। दरबारियों में से एक ने कहा ,”अच्छा ! तो यही था वह सन्यासी ! जटा और चोला तो उतार आया , परन्तु तिलक व कंठीमाला उतारना भूल गया। “
महाराज को भी यह देखकर हँसी आ गयी। वे तुरंत बोले, ” अब मंदिर का निर्माण कार्य तेनालीराम की देखरेख में होगा। “
राजदरबारियों ने भी महाराज की घोषणा का स्वागत करते हुए, “जी महाराज! की हुनकार भरी”।