प्रायश्चित (प्रेमचंद)

सुबोध ने नम्रता से कहा—यही मेरा सिद्धान्त है और हमेशा से यही सिद्धान्त रहा है। जहॉँ रहा, मतहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आज दोनों ही किसी तीसरे के गुलाम हैं। फिर रोब कैसा और अफसरी कैसी? हॉँ, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।

जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होनी लगीं—
‘आदमी तो अच्छा मालूम होता है।‘
‘हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जायगा।‘
‘पहले सभी ऐसे ही बातें करते है।‘
‘ये दिखाने के दॉँत है।‘

सुबोध को आये एक महीना गुजर गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्वाव से खुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित है, इतना नम्र हे कि जो उससे एक बार मिला हे, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी जबान पर आता ही नहीं। इनकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता; लेकिन द्वेष की ऑंखों मेंगुण ओर भी भयंकर हो जाता है। सुबोध के ये सारे सदगुण मदारीलाल की ऑंखों में खटकते रहते हें। उसके विरूद्ध कोई न कोई गुप्त षडयंत्र रचते ही रहते हें। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेम्बरों को भड़काना चाहा, मुँह की खायी। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भुस में आग लगा कर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हँस कर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानों उसके सच्चे मित्र है, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।

एक दिन मदारीलाल सेक्रटरी साहब के कमरे में गए तब कुर्सी खाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज पर पॉँच हजार के नोट पुलिदों में बँधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाये गये थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलया गया थां आज ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेज कर खजाने से रूपये मॅगवाये थे। मदारीलाल ने बरामदे में झॉँक कर देखा, सुबोध का कहीं जता नहीं। उनकी नीयत बदल गयी। र्दर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। कॉँपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाये; पतलून की दोनों जेबों में भर कर तुरन्त कमरे से निकले ओर चपरासी को पुकार कर बोले—बाबू जी भीतर है? चपरासी आप ठेकेदार से कुछ वसूल करने की खुशी में फूला हुआ थां सामने वाले तमोली के दूकान से आकर बोला—जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर रहे है। अभी-अभी तो गये हैं।

मदारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लर्क से कहा—यह मिसिल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।

क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। जरा देर में लौट कर बोला—सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फाइल मेज पर रख आया हूँ।

मदारीलाल ने मुँह सिकोड़ कर कहा—कमरा छोड़ कर कहॉँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठायेंगे।
क्लर्क ने कहा—उनके कमरे में दफ्तवालों के सिवा और जाता ही कौन है?

मदारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा—तो क्या दफ्तरवाले सब के सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाय, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते देखी हैं।इस वक्त हम सभी साह हैं; लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाजे बन्द कर दीजिए।

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