हिन्दू ज्योतिष में जिस प्रकार बारह राशियाँ होती है ठीक उन्ही के आधार पर बारह भावों की रचना की गयी है । इन बारह भावों पर ही पूरा ज्योतिष आधारित है ।
जिस तरह किसी कंपनी का सेल्समेन (बिक्रीकर्ता) उस कंपनी रिप्रेजेन्टेटिव यानि प्रतिनिधि बनकर आपको कंपनी के विषय में अच्छा या बुरा जो भी बताता है वह सब आप उस सेल्समेन (बिक्रीकर्ता) के द्वारा ही जान पाते है । ठीक उसी प्रकार कुंडली में हर एक भाव किसी न किसी बारें में दर्शाता है ।
1. प्रथम भाव :
जातक की कुंडली में इसे लग्न भाव या लग्न या तन भाव भी कहते हैं । इस भाव से जातक की पर्सनालिटी , शारीरिक आकृति, व्यव्हार, मनोभाव, त्वचा का रंग, अहंकार आदि का विचार किया जाता हैं। कुंडली में इसे त्रिकोण भी कहा जाता है और यह जन्मपत्री में अत्यंत शुभ भाव माना गया हैं।
2. द्वितीय भाव :
यह भाव धन भाव भी कहलाता हैं। धन, कुटुम्भ (परिवार), वाणी, परिवार का सुख आदि इसी भाव से जाना जाता हैं ।
3. तृतीय भाव :
इस घर को छोटे भाई -बहनों या पराक्रम का घर भी कहते हैं। छोटे भाई-बहन, बल, पराक्रम, लेखन, धैर्य, दांया कान, दायीं भुजा, मेहनत और छोटी-मोटी यात्राओं का विचार कुंडली में इस भाव से किया जाता हैं।
4. चतुर्थ भाव :
जातक की कुण्डली में अगर माता, वाहन सुख, भूमि, जमीन जायदाद, पैतृक संपत्ति आदि को जानना हो तो चतुर्थ भाव देखा जाता है ।
5. पंचम भाव :
ज्योतिष में इस भाव को संतान भाव कहा जाता है । कुंडली में संतान का विचार इसी घर से किया जाता है । जातक के पेट का सम्बन्ध भी इसी घर से होता है। जातक का लव अफेयर्स, लव रोमांस जीवन में होगा या कितना सफल रहेगा इस सब का विचार भी इसी घर की स्थिति देखकर किया जाता है। अनिश्चित लाभ जैसे की लोटरी, जुआ ,सट्टा इसी घर से जाना जाता है । कुंडली में इस भाव को त्रिकोण भी कहा जाता है । और यह अत्यंत शुभ भाव में गिना जाता है ।
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