क्षत्रिय होते हुए भी कर्ण ने अपना पूरा जीवन सूतपुत्र के रूप में बिताया, कर्ण के पिता भगवान सूर्य और माता कुंती थी लेकिन फ़िर भी कर्ण को वो सम्मान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी थे । परन्तु आज भी सामान्य बातो में अनायास ही हम दानवीर कर्ण का उदाहरण देने से नहीं चुकते है । ऐसे ही कर्ण और श्रीकृष्ण से जुडी एक रोचक कथा महाभारत में वर्णित है जिसको पढकर आपको वास्तव में लगेगा की क्यों कौरवों की सेना में होते हुए भी महारथी कर्ण महाभारत के एक ऐसे पात्र थे जिनके सिद्धांतो और नैतिक मूल्यों के कारण श्रीकृष्ण भी उन्हें वीर योद्धा मानते थे ।
जब कर्ण युद्ध भूमि में पड़ा करहा रहा था तब सभी पांडव कर्ण के मारे जाने की ख़ुशी मना रहे थे। ऐसे ही समय में अर्जुन ने अहंकारवश श्रीकृष्ण से कहा की आपका दानवीर कर्ण तो समाप्त हो गया ।
भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन को अहंकार हो गया है । अर्जुन की बात का जवाब देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा की कर्ण दानी ही नहीं महा दानी है उसके काल में उससे बड़ा दानी कोई न हो सका ।
अर्जुन को श्रीकृष्ण की यह बात कुछ समझ नहीं आई, अर्जुन ने कहा की कर्ण महादानी है ये अब कैसे सत्यापित हो सकता है । श्रीकृष्ण ने कहा की युद्ध भूमि में मृत्यु की प्रतीक्षा करता कर्ण अभी भी साबित कर सकता है ।
कर्ण के महा दानवीर होने की परीक्षा लेने के लिए श्रीकृष्ण और अर्जुन ब्राह्मण का रूप धारण करके युद्ध भूमि में पहुँच गए ।
श्रीकृष्ण कर्ण के पास आकर बोले की हे! अंग राज आपकी ऐसी अवस्था देख कर आपसे कुछ माँगने का भी साहस नहीं हो रहा इसलिए मेरा यहाँ से जाना ही उचित है । तब कर्ण ने ब्राह्मण को रोकते हुए कहा की हे ब्राह्मण! जब तक मेरे शरीर में प्राण है तब तक मेरे पास आया याचक लौट जाए ऐसा कैसे हो सकता है ।
तब कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर से अपने दो सोने के दांत तोड़कर श्री कृष्ण को दे दिए। कर्ण की ऐसी दानवीरता देखकर श्रीकृष्ण काफी प्रभावित हुए। श्री कृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग़ सकते हैं।
तब कर्ण ने कृष्ण से कहा कि निर्धन सूत पुत्र होने के कारण उनके साथ बहुत से छल हुए हैं। इसलिए आप अगली बार जब धरती पर अवतार लें तो पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रयत्न करें ।
दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने कहा कि अगले अवतार में आप उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में कर्ण ने श्री कृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर हो जहाँ कोई पाप ना हुआ हो ।
पूरी पृथ्वी पर कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ कोई पाप न हुआ हो इसलिए श्री कृष्ण ने कर्ण के वरदान की पूर्ति के लिए उनका अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया।