प्रेमचंद जी अपनी कहानियो के लिए बहुत ही प्रचलित है तो उनके ही द्वारा लिखी यह कहानी हम आप तक पहुचा रहे है –
किसी गांव में मूरत नाम का एक बनिया रहता था। सड़क पर उसकी छोटी सी दुकान थी। वहां रहते उसे बहुत समय हो चुका था, इसलिए वहां के सब निवासियों को भलीभांति जानता था। वह बड़ा सदाचारी, व्यावहारिक और सुशील था।
जो बात कहता, उसे जरूर पूरा करता। कभी धेले भर भी कम न तोलता और न घी तेल मिलाकर बेचता। चीज़ अच्छी न होती, तो ग्राहक से साफसाफ कह देता, धोखा न देता था। वह भगवतभजन का प्रेमी हो गया था। उसके बालक तो पहले ही मर चुके थे, अंत में तीन साल का बालक छोड़कर उसकी स्त्री भी मर जाती है । पहले तो मूरत ने सोचा, इसे ननिहाल भेज दूं, पर फिर उसे बालक से प्रेम हो गया। वह स्वयं उसको पालने लगा। उसके जीवन का आधार अब यही बालक था। इसी के लिए वह रातदिन काम किया करता था। लेकिन शायद संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही न था।
बीस वर्ष की अवस्था में वह बालक भी यमलोक को सिधार गया। अब मूरत के शोक की कोई सीमा न थी। उसका विश्वास हिल गया।अब वो परमात्मा की निन्दा कर वह कहने लगा कि परमेश्वर बड़ा निर्दयी और अन्यायी है; मारना बू़ढो को चाहिए था, मार डाला युवक को। यहां तक कि उसने ठाकुर के मंदिर में जाना भी छोड़ दिया।
एक दिन उसका पुराना मित्र, जो आठ वर्ष से तीर्थयात्रा को गया हुआ था, उससे मिलने आया।
मूरत बोला-मित्र देखो, सर्वनाश हो गया। अब मेरा जीना व्यर्थ है। मैं नित्य परमात्मा से यही विनती करता हूं कि वह मुझे जल्दी मृत्युलोक में ले जाये , मैं अब किस आशा पर जीऊं।
मित्र कहता है -मूरत, ऐसा मत कहो। परमेश्वर की इच्छा को हम नहीं जान सकते। वह जो करता है, ठीक करता है। पुत्र का मर जाना और तुम्हारा जीते रहना विधाता के वश में है, और कोई इसमें क्या कर सकता है! तुम्हारे शोक का मूल कारण यह है कि तुम अपने सुख में सुख मानते हो। पराए सुख से सुखी नहीं होते।
मूरत-तो मैं क्या करुं?
मित्र कहता है -परमात्मा की भक्ति करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। जब सब काम परमेश्वर को अर्पण करके जीवन व्यतीत करोगे तो तुम्हें परमानंद प्राप्त होगा।
मूरत-चित्त स्थिर करने का कोई उपाय तो बतलाइए।
मित्र-गीता, भक्तमाला आदि गरन्थों को सुना,करो पाठन, मनन किया करो। ये गरन्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाले हैं। इनका पुनः आरम्भ कर दो, चित्त को बड़ी शांति प्राप्ति होगी।
मूरत ने इन गरन्थों को पुनः आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में इन पुस्तकों से उसे इतना प्रेम हो गया कि रात को बारह बजे तक गीता आदि पड़ता और उसके उपदेशों पर विचार करता रहता था। पहले तो वह सोते समय छोटे पुत्र को स्मरण करके रोया करता था, अब सब भूल गया। सदा परमात्मा में लीन रहकर आनंदपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा। पहले इधरउधर बैठकर हंसीठट्ठा भी कर लिया करता था, पर अब वह समय व्यर्थ न खोता था। या तो दुकान का काम करता था या रामायण पड़ता था। तात्पर्य यह कि उसका जीवन सुधर गया था मूरत पुस्तक रखकर मन में विचारने लगा कि जब ईश्वर सब प्राणियों पर दया करते हैं, तो क्या मुझे सभी पर दया न करनी चाहिए? फिर वह सुदामा और शबरी की कथा पढ़ कर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या मुझे भी भगवान के दर्शन हो सकते हैं!
यह विचारते विचारते उसकी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-मूरत!-मूरत! देख, याद रख, मैं कल तुझे दर्शन दूंगा।
यह सुनकर वह दुकान से बाहर निकल आया। वह कौन था? वह चकित होकर कहने लगा, यह स्वप्न है अथवा सच । कुछ पता न चला। वह दुकान के भीतर जाकर सो गया।
दूसरे दिन सुबह उठकर , पूजापाठ कर, दुकान में आया मूरत अपने कामधंधे में लग गया; परंतु उसने रात वाली बात नहीं भूली थी।
रात में बर्फ रास्तो में भरी पड़ी थी और मूरत अपनी धुन में बैठा था। इतने में बर्फ हटाने को कोई कुली आया। मूरत ने समझा कृष्णचन्द्र आते हैं, आंखें खोलकर देखा कि लालू बर्फ हटाने आया है, हंसकर कहने लगा- अरे लालू तू है और मैं समझा कृष्ण भगवान् है वाह री मेरी बुधि
लालू बर्फ हटाने लगा वह बुढा आदमी था। शीत के कारण बर्फ न हटा सकरा था । थककर बैठ गया और शीत के मारे कांपने लगा। मूरत ने सोचा कि लालू को ठंड लग रही है, इसे आग तपा दूं।
मूरत-लालू भैया, यहां आओ, तुम्हें ठंड सता रही है। हाथ सेंक लो।
लालू दुकान पर आकर धन्यवाद करके हाथ सेंकने लगा।
मूरत-भाई, कोई चिंता मत करो। बर्फ मैं हटा देता हूं। तुम बू़ढे हो, ऐसा न हो कि ठंड खा जाओ।
लालू-तुम क्या किसी की बाट देख रहे थे?
मूरत-क्या कहूं, कहते हुए लज्जा आती है। रात मैंने एक ऐसा स्वप्न देखा है कि उसे भूल नहीं सकता। भक्तिपाठ पढ़ते पढ़ते मेरी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-‘मूरत!’ मैं उठकर बैठ गया। फिर शब्द हुआ, ‘मूरत! मैं तुम्हें दर्शन दूंगा!’ बाहर जाकर देखता हूं तो वहां कोई नहीं। मैं भक्तिपाठ में सुदामा और शबरी के चरित्र का पढ़ रहा था मै यह जान चुका हूं कि भगवान ने परमेवश होकर किस परकार साधारण जीवों को दर्शन दिए हैं। वही अभ्यास बना हुआ है। बैठा कृष्णचन्द्र की राह देख रहा था कि तुम आ गए।
लालू-जब तुम्हें भगवान से प्रेम है तो अवश्य दर्शन होंगे। तुमने आग न दी होती, तो मैं मर ही गया था।
मूरत-वाह भाई लालू, यह बात ही क्या है! इस दुकान को अपना घर समझो। मैं सदैव तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूं।
लालू धन्यवाद करके चल दिया। उसके पीछे दो सिपाही आये। उनके पीछे एक किसान आया। फिर एक रोटी वाला आया। सब अपनी राह चले गए। फिर एक स्त्री आयी।
वह फटे पुराने वस्त्र पहने हुए थी। उसकी गोद में एक बालक था। दोनों शीत के मारे कांप रहे थे।
मूरत-माई, बाहर ठंड में क्यों खड़ी हो? बालक को जाड़ा लग रहा है, भीतर आकर कपड़ा ओ़ढ लो।
स्त्री भीतर आई। मूरत ने उसे चूल्हे के पास बिठाया और बालक को मिठाई दी।
मूरत-माई, तुम कौन हो?
स्त्री-मैं एक सिपाही की स्त्री हूं। आठ महीने से न जाने कर्मचारियों ने मेरे पति को कहां भेज दिया है, कुछ पता नहीं लगता। गर्भवती होने पर मैं एक जगह रसोई का काम कर रही थी । ज्योंही यह बालक उत्पन्न हुआ, उन्होंने इस भय से कि दो जीवों को अन्न देना पड़ेगा, मुझे निकाल दिया। तीन महीने से मारी मारी फिरती हूं। जो कुछ पास था, सब बेचकर खा गई। इधर साहूकारिन के पास जाने को आई हु सायद नौकर रख ले मुझे ।
मूरत-तुम्हारे पास कोई ऊनी वस्त्र नहीं है?
स्त्री-वस्त्र कहां से हो, दाम भी तो पास नहीं।
मूरत-यह लो रजाई इसे ओ़ढ लो।
स्त्री-भगवान तुम्हारा भला करे। तुमने बड़ी दया की। बालक शीत के मारे मरा जाता था।
मूरत-मैंने दया कुछ नहीं की। श्री कृष्णचन्द्र की इच्छा ही ऐसी है।
फिर मूरत ने स्त्री को रात वाला स्वप्न सुनाया।
स्त्री-क्या अचरज है, दर्शन होने कोई असम्भव तो नहीं।
स्त्री के चले जाने पर सेव बेचने वाली आयी।
उसके सिर पर सेवों की टोकरी थी और पीठ पर अनाज की गठरी। टोकरी धरती पर रखकर खम्भे का सहारा ले वह विश्राम करने लगी कि एक बालक टोकरी में से सेव उठाकर भागा। सेव वाली ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और सिर के बाल खींचकर मारने लगी। बालक बोला-मैंने सेव नहीं उठाया।
मूरत ने उठकर बालक को छुड़ा दिया।
मूरत-माई, क्षमा कर, बालक है।
सेव वाली-यह बालक बड़ा उत्पाती है। मैं इसे दंड दिये बिना कभी न छोडूंगी।
मूरत-माई, जाने दे, दया कर। मैं इसे समझा दूंगा। वह ऐसा काम फिर नहीं करेगा।
माई ने बालक को छोड़ दिया। वह भागना चाहता था कि सूरत ने उसे रोका और कहा-माई से अपना अपराध की क्षमा मानगो और प्रतिज्ञा करो कि चोरी नहीं करोगे।
बालक ने रोकर माई से अपने अपराध की क्षमा मांगी और प्रतिज्ञा की ,कि फिर झूठ नहीं बोलूंगा। इस पर मूरत ने उसे एक सेव मोल ले दिया।
माई –वाह वाह, क्या कहना है! इस प्रकार तो तुम गांव के समस्त बालकों का सत्यानाश कर डालोगे। यह अच्छी शिक्षा है! इस तरह तो सब लड़के शेर हो जायेंगे।
मूरत-माई, यह क्या कहती हो! बदला और दंड देना तो मनुष्यों का स्वभाव है, परमात्मा का नहीं, वह दयालु है। यदि इस बालक को एक सेव चुराने का कठिन दंड मिलना उचित है, तो हमको हमारे अनन्त पापों का क्या दंड मिलना चाहिए? माई, सुनो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। एक कर्मचारी पर राजा के दस हजार रुपये आते थे। उसके बहुत विनय करने पर राजा ने वह ऋ़ण छोड़ दिया। उस कर्मचारी की भी अपने सेवकों से सौ सौ रुपये पाने थे, वह उन्हें बड़ा कष्ट देने लगा। उन्होंने बहुत कहा कि हमारे पास पैसा नहीं, ऋण कहां से चुकावें? कर्मचारी ने एक न सुनी। वे सब राजा के पास जाकर फरियादी हुए। राजा ने उसी दम कर्मचारी को कठिन दंड दिया। तात्पर्य यह कि हम जीवों पर दया नहीं करेंगे, तो परमात्मा भी हम पर दया नहीं करेगा।
माई -यह सत्य है, परंतु ऐसे बर्ताव से बालक बिगड़ जाते हैं।
मूरत-कदापि नहीं। बिगड़ते नहीं, वरंच सुधरते हैं।
माई टोकरा उठाकर चलने लगी कि उसी बालक ने आकर विनय की कि माई, यह टोकरा तुम्हारे घर तक मैं पहुंचा आता हूं।
रात्रि होने पर मूरत भोजन करने के बाद गीतापाठ कर रहा था कि उसकी आंख झपकी और उसने यह दृश्य देखा-
‘मूरत! मूरत!’
मूरत-कौन हो?
‘मैं-लालू।’ इतना कहकर लालू हंसता हुआ चला गया।
फिर आवाज आयी-‘मैं हूं।’ मूरत देखता है कि दिन वाली स्त्री आई बालक को गोद में लिये, सम्मुख आकर खड़ी हुई, हंसी और लुप्त हो गई। फिर शब्द सुनाई दिया-‘मै हूं।’ देखा कि सेव बेचने वाली और बालक हंसते हंसते सामने आये और वो भी लुप्त हो गए!
मूरत उठकर बैठ गया।
उसे विश्वास हो गया कि कृष्णचन्द्र के दर्शन हो गए, क्योंकि प्राणी मात्र पर दया करना ही परमात्मा का दर्शन करना है।
कहानी की सिख –परोपकार में ही सच्चे देवता के दर्शन है यदि हम हर प्राणी से प्यार करेगे तो परमेश्वर हमसे सदा खुस रहेगे
-प्रेमचंद्र