केला खाने से ही फायेदा नहीं उसकी खेती से भी बहुत लाभ है

केला खाने से ही फायेदा नहीं उसकी खेती से भी बहुत लाभ है (  )

संसार  भर में केला एक महत्वपूर्ण फसल है। भारत में  लगभग करोडो  से भी ज्यादा केले की खेती होती है भारत के  महाराष्ट्र में सबसे अधिक केले का उत्पादन होता है केले का पोषक मान अधिक होने के कारण केरल राज्य एवं युगांडा जैसे देशों में केला  एक प्रमुख खाद्य फल है। केले के उत्पादों की बढती मांग के कारण केले की खेती का महत्व भी दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।

केला किस किस रूप में उपयोग में आता है जाने

  • केले के चिप्स बनते है
  • केला फिंगर के रूप में
  • केला  का आटा
  • केला का पापड
  • केला का हलवा
  • केला का जूस
  • केला फल के रूप में
  • केला की टाफी
  • केला मदिरा रूप में
  • केला शेम्पेन के रूप में

आदि  सामग्रियां तैयार  की जाती हैं केले द्वारा ।

केले को लगाने के लिए वातावरण

केला के लिए  आर्द्र वातावरण  उपयुक्त होता  है।एसे वातावरण में  केले की खेती अच्छी तरह से की जा सकती है। वार्षिक वर्षा समान रूप से वितरित होनी  चाहिये। शीत एवं शुष्क जलवायु में भी इसका उत्पादन होता है। परंतु गर्म हवाओं जैसे लू  आदि से भारी नुकसान  हो जाता  है।

केले की खेती के लिए उपयुक्त ज़मीन

केले की खेती के लिए रेतीली या  दोमट ज़मीन  उपयुक्त होती है।  जल  का निकास होना आवश्यक हैं। केले की खेती अधिक अम्लीय एवं क्षारीय भूमि में नही की जा सकती है।

केले के कुछ प्रकार होते है जो नीचे हम आपको बता रहे है जैसे-

ड्वार्फ केवेन्डिस

  • यह प्रजाति म.प्र., महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार में बहुत  पायी जाती  है।
  • इस प्रजाति में फल बडे, मटमैले पीले या हरेपन लिये हुये पीला होता है।
  • तना मौटा हरा पीलापन लिये हुये होता है।
  • पत्तियां चौड़ी एवं पीली होती हैं।

    रोबस्टा

  • इसे बाम्बेग्रीन, हरीछाल, बोजीहाजी आदि नामो से अलग अलग प्रांतो मे उगाया जाता है
  • इस प्रजाति को पश्चिमी दीप समूह से लगाया गया है।
  • इसका तना मध्यम मोटाई हरे रंग का होता है
  • इसके फल अधिक मीठे एवं आकर्षक होते हैं।
  • फल पकने पर चमकीले पीले रंग का हो जाता है।

 रस्थली

  • इस प्रजाति को मालभोग अमृत पानी सोनकेला रसवाले आदि नामों से विभिन्न राज्यों मे व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है
  • इसके फल हरे, पीले रगं के मोटे होते हैं।
  • छिलके पतला होते है जो पकने के बाद सुनहरे पीले रगं के हो जाते हैं।
  • फल अधिक स्वादिष्ट सुगन्ध पके सेब जैसी कुछ मिठास लिये हुये होता है।
  • केले का छिलका कागज की तरह पतला होता है
  • इस प्रजाति की भण्डारण क्षमता कम होती है।आदि अन्य प्रकार के भी केले पाए जाते है जिनके अलग अलग गुण होते है

केले की रोपाई के लिए उपकरण:

आजकल केले के टिश्यूकल्चर पौधे उत्पादकों द्वारा उपयोग में लाये जा रहे हैं। क्योंकि इनको जेनेटिक  द्वारा बीमारी रहित उत्तम गुणवत्ता वाले अधिक उत्पादक माने जाते है
खेत की जुताई कर मिट्टी को भूरि-भूरि बना लेना चाहिये जिससे भूमि का जल निकास उचित रहें तथा कार्बनिक खाद ह्यूमस के रूप मे प्रचुर मात्रा में हो इसके लिये हरी खाद की फसल ले।
पौधे के  कतार से कतार की दूरी और  पौधे से पौधे की दूरी  रखते हैं तथा पौधा रोपण के लिये  गड्डे खोदे  जाते है तथा प्रत्येक गडडे मे 15 किग्रा. अच्छी पकी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद रोपण के समय  दवा मिटटी में मिला दी जाती है ।

रोपण का सही  समय:
अप्रैल से मई  और  अक्टूबर में भी रोपा जा सकता है

खाद एवं उर्वरक कैसे दे:

केले की फसल में  कपास या महुए की खली प्रति पौघा के हिसाब से दें। कम्पोस्ट खाद एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा पौधा लगाते समय  एवं पोटाश एक माह के अन्तराल से सात से आठ माह के बाद  मे दें ।

केले की फसल में क्या समस्या आती है तथा उसकी देख रेख:

  • केले की फसल में पौधों की जड़ों पर मिटटी चढ़ाना आवश्यक है। क्योंकि केले की जड़ें अधिक गहरी नहीं जाती हैं।
  • इसलिये पौधों को सहारा देने के लिए मिटटी चढ़ाना जरूरी है। कभी कभी कंद बाहर आ जाते हैं। जिससे पौधे की वृध्दि रुक जाती है।
  • इसलिए मिटटी चढ़ाना जरूरी है।
  • जिन किस्मों में बंच का वजन काफी हो जाता है। तथा स्युडोस्टेंम के टूटने की संभावना रहती है। इसे बल्ली का सहारा देना चाहिए,
  • तथा  केले के पत्ते से उसके डंठल को ढ़क देना चाहिए ।

केले के पौधों को कैसे काटे:

केला 110 से 130 दिनों में काटने योग्य हो जाते हैं। बंच काटने के पश्चात पौधों को धीरे-धीरे काटें, क्योंकि इस क्रिया से पोषक तत्व जड़ी बाले पोधे को उपलब्ध होने लगते है।  जिससे उत्पादन अच्छा होने की संभावना बढ़ जाती है।

जल का प्रबंध कैसा हो:

केले की फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। केले के पत्ते बड़े चौड़े होते हैं।  इसलिए बड़े पैमाने पर पानी की वाष्पीकरण उत्सर्जन होने से केले को अधिक पानी की आवश्यकता होती है

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फसल की देख रेख तथा समस्या का समाधान

  • उकठारोग- यह बीमारी  फफूंद के द्वारा फेलती है पौधे की पत्तियां मुरझाकर सूखने लगती है केले का पूरा तना फट जाता है प्रारंभ में पत्तियां किनारों से पीली पडती हैं प्रभावित पत्तियां डण्ठल से मुड़ जाती है प्रभावित पीली पत्तियां तने के चारों निचले भाग तने का फटना बीमारी का प्रमुख लक्षण है। जड़ो में पीले, लाल एवं भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते है पौधा कमजोर हो जाता है।
    इसलिए  गन्ना एवं सूरजमुखी के फसल चक्र को अपनाने से बीमारी का प्रकोप कम हो जाता है। तथा ट्राइकोडर्मा बिरिडी जैविक फफूंद नाशक का उपयोग करना चाहिए।
  • पत्तियों की भीतरी  नसों के साथ अनियमित गहरी धारियां शुरू के लक्षण के रूप मे दिखाई देती हैं। इसमें पौधों का ऊपरी सिरा एक गुच्छे का रूप ले लेता है। पत्तियां छोटी व संकरी हो जाती हैं। किनारे ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं। डंठल छोटे व पौधे बौने रह जाते हैं और फल नहीं लगते हैं। इस बीमारी के विषाणु का वाहक पेन्टोलोनिया नाइग्रोनरवोसा नामक माहू है।
    इसलिए  रोग ग्रसित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए तथा  रोग वाहक कीट नियंत्रण के लिये पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए ।

 

 

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